प्रजापिता ब्रह्माकुमारीज़ का साप्ताहिक पाठ्यक्रम
आखिर क्यों एक सप्ताह का ही पाठ्यक्रम बनाया गया है। या एक सप्ताह में ही कोर्स पूरा क्यों होता है ?
भारत मे सप्ताह का बड़ा माहात्म्य है। यह लोग प्राय: अपने घर में 'भागवत सप्ताह' 'गीता सप्ताह' आदि के नाम से एक सप्ताह का प्रोग्राम रखा करते हैं। सोचने की बात है कि यह प्रथा शुरू कब से और क्यों हुई?
विवेक और अनुभव यह कहता हैं कि पहले जब भगवान ने प्रजापिता ब्रह्मा द्वारा ईश्वरीय ज्ञान सुनाया होगा तब वह ज्ञान संक्षेप में अन्य लोगों को मौखिक रूप से सुनने के लिए ब्राह्मणों को एक सप्ताह का समय लगा करता होगा, परंतु बाद में जब लंबे चौड़े ग्रंथ रचे गए तब उन्हें भी लकीर के फकीरो ने सात खंडो में बाँटकर सुनाने की प्रथा चला दी। फिर दूसरे धर्म वालों ने, जैसे सिख्ख भाइयों ने भी इसे अपना लिया। परंतु बाद में न तो आदिम (Original) और वास्तविक ज्ञान का वह शुद्ध सार रहा जो कि स्वयं भगवान ने सुनाया था, न ब्रह्मा मुख द्वारा पैदा हुए वह सच्चे योगयुक्त ब्राह्मण रहे, न ही सुनने वालों की सच्ची जिज्ञासा रही, न वे सप्ताह भर ज्ञान-चर्चा के लिए निर्धारित नियमों का पालन करते थे। केवल ग्रंथो के साप्ताहिक पाठ की प्रथा या परिपाटी ही चली आयी।
अब तो कलि का अंत आ चुका है और भगवान शिव फिर से स्वयं प्रजापिता ब्रह्मा द्वारा जो आदि सनातन, सच्चा ज्ञान वर्तमान समय दे रहे हैं, वही ज्ञान ब्रह्मा-मुख द्वारा पैदा हुए ब्राह्मण एक सप्ताह में सार के रूप में जिज्ञासुओ को सुनते है। मौखिक रूप से सुनाये जाने वाले उस अनुभव-युक्त ईश्वरीय ज्ञान को ही मैंने यहां सहज और आम बोलचाल की भाषा में संपादित किया है। आशा है कि जिज्ञासु इसे गुणग्राहक दृष्टि से पकड़कर पूरा-पूरा लाभ उठाएंगे और अधिक जानने के लिए, योग की विधि को प्रक्टिकल रीति से सीखने के लिए तथा मनोविकारों पर विजय प्राप्त करने अन्य युक्तियां जानने के लिए प्रयत्न और पुरुषार्थ करेंगे।
इस course से पूरी तरह लाभ उठाने के लिए कुछ नियमों का पालन करना आवश्यक है। जिज्ञासु को चाहिए कि इस सात दिनों में वह ब्रह्मचर्य-व्रत का पालन करें, सभी को आत्मिक दृष्टि से देखे, सात्विक आहार करे, विकारी लोगों के द्वारा बनाया हुआ भोजन न खाये और बुरे संग से बचकर रहे। इन नियमों का पालन करने से उसे निश्चय ही ज्ञान लाभ होगा।
वास्तव में चाहिए तो यह कि मनुष्य एक सप्ताह का परमपिता परमात्मा कि अखण्ड स्मृति और आत्म-निश्चय (Soul-consciousness) का निरंतर अभ्यास करें और इसी ज्ञान ही के श्रवण, मनन तथा धारण करने के पुरुषार्थ में लगा रहे, दिव्य गुणों का चिंतन करके उन्हें अपने जीवन मे लाये, काम और धीरे स्वर से बोले और किसी भी विकार से स्वयं को एक बार भी प्रभावित न होने दे। यही इस ज्ञान का अखण्ड पाठ है। आशा है कि इस प्रकार नियमपूर्वक इस इश्वरीय ज्ञान को सुनने, पढ़ने, मनन करने, धारण कारने तथा योग लगाने से मनुष्य को जीवन मे पवित्रता, सुख और शांति का ऐसा अनुभव होगा कि वह स्वयं को बहुत ही धन्य-धन्य मानेगा।
-बी.के. जगदीश चंद्र
आप कौन है , कहा से आये है?
आज यदि हम लोगों से यह प्रश्न करते हैं कि- "आप कौन है?" तो कोई अपने लौकिक शरीर का नाम बताता है तो एक कहता है कि 'मैं डॉक्टर हूँ' दूसरा जवाब देता है कि 'मैं वकील हूँ' तीसरा बताता है कि 'मैं एक व्यपारी हूँ' और चौथा उत्तर देता है कि 'मैं एक इंजीनियर हूँ', परंतु वे सब यह नही सोचते है कि ये तो वास्तव में शरीर मे आने के बाद के हमारे व्यावसायिक नाम (Professional name) है ; हम जो कि इस शरीर द्वारा धंधे करते हैं, हैम इससे भिन्न है , क्योंकि जब हम डॉक्टर, वकील, व्यापारी व इंजीनियर का धन्धा नही करते थे अर्थात जब हमारा शरीर अभी लड़कपन की अवस्था मे था, टैब भी 'हम' तो विद्यमान थे ही और जब हम यह धंधा छोड़ेंगे और यह शरीर वृद्ध हो जाएगा तब भी हम तो होंगें ही । अतः स्पष्ट है वे इस प्रश्न का सही उत्तर नही देते कि शरीर रूपी साधन का आधार लेकर इन धन्धो को करने वाला मैं स्वयं कौन हूँ ?
मनुष्य यों तो सारा दिन अपने वार्तालाप में कहता है- मैं अमुक कार्य करता हूँ , "मैं" फलां स्थान पर रहता हूँ, आदि, परन्तु यह 'मैं...मैं' कहने वाला वास्तव में है 'कौन' इसे वह नही जानता।
वास्तव में , ...'मैं' और 'मेरा' दो अलग अलग वस्तुएं है। 'मैं' है आत्मा और 'मेरा' तो उसके रहने का स्थान है। आप किसी कमरे में बैठे हैं तो आप यह थोड़े ही कहेंगे कि - "मैं कमरा हूँ" इसी प्रकार, आप शरीर नही है, शरीर तो आपका घर है अथवा आपकी कुटिया है। जैसे- कोई ड्राइवर मोटर-कार में बैठा होता है और उसे चलता है, परंतु वह स्वयं तो उससे अलग होता है। इसी प्रकार आत्मा तो ड्राइवर अथवा रथवान है और यह शरीर उसका रथ है। आत्मा ही कान द्वारा सुनती, मुख द्वारा बोलती और आंखों द्वारा देखती है। तो आप 'आत्मा' है ना कि 'शरीर'। शरीर या कर्मेन्द्रियां तो आपके लिए कर्म करने के साधन है। आत्मा ही मानो हीरा है, शरीर तो मानो उस हिरे के लिए एक डिब्बा है ।
जीवन की सबसे अनोखी पहेली (PUZZLE OF LIFE)
मनुष्य अपने जीवन मे कई पहेलियाँ हाल करते हैं और उसके फलस्वरूप इनाम भी पाते है । परन्तु इस छोटी सी पहेली का हैकोई नही जानता कि- "मैं कौन हूँ ?" यों तो हर एक मनुष्य सारा दिन "मैं.. मैं." कहता ही रहता है, परंतु यदि उससे पूछा जाय कि "मैं" कौन वाला कौन है? तो वह कहेगा कि "मैं कृष्णचंद हूँ.. या 'मैं' लालचंद हूँ" । परंतु सोचा जाय तो वास्तव में यह तो शरीर का नाम है, शरीर तो 'मेरा' है, 'मैं' तो शरीर से अलग हूँ। बस, इस छोटी सी पहेली का प्रैक्टिकल हल न जानने के कारण, अर्थात स्वयं को न जानने के कारण, आज सभी मनुष्य देह-अभिमानी हैं और सभी काम, क्रोधादि विकारों के वश है तथा दुःखी है।
अब परमपिता परमात्मा कहते हैं कि -- "आज मनुष्य में घमंड तो इतना है कि वह समझता है कि "मैं सेठ हूँ.., स्वामी हूँ, अफसर हूँ..," परंतु उसमे अज्ञान इतना है कि वह स्वयं को भी नही जानता। "मैं कौन हूँ, यह सृष्टि रूपी खेल आदि से अंत तक कैसे बना हुआ है, मैं इसमे कहाँ से आया, कब आया, कैसर सुख-शांति का राज्य गवांया तथा परमप्रिय परमपिता परमात्मा (इस सृष्टि के रचयिता) कौन है?" इन रहस्यो को कोई भी नही जानता। अब जीवन की इस पहेली (puzzle of life) को फिर से जानकर मनुष्य देही-अभिमानी बन सकता है और फिर उसके फलस्वरूप नर को श्री नारायण और नारी को श्री लक्ष्मी पैड की प्राप्ति होती है और मनुष्य को मुक्ति तथा जीवनमुक्ति मिल जाती है । वह सम्पूर्ण पवित्रता, सुख एवं शांति को पा लेता हैं ।
मैं कौन हूँ ?
यह तो सर्व विदित है कि यह शरीर पांच तत्त्वों का पुतला है।यह शरीर तो एक यंत्र-समूह है जिसके द्वारा, मैं बोलता, सुनता, देखता और चलता फिरता हूँ, परन्तु मैं स्वयं इससे अलग, इसका प्रयोग करने वाला हूँ। जैसे टेलीफोन या मोबाइल द्वारा बोलने या सुनने वाला व्यक्ति मोबाइल रूपी साधन अथवा यंत्र से अलग , एक अनुभवशील, विचारवान चेतन प्राणी होता है, वैसे ही मैं भी मुख, कान, आंख आदि सधान समूह आथवा पिंड से अलग ही एक चेतन हूँ। 'मैं' अलग हूँ यह 'शरीर' मेरा है। 'मै' आँख, कान या मुख नही हूँ बल्कि आंख द्वारा देखने वाला, मुख द्वारा बोलने वाला, कान द्वारा सुनने वाला, मैं इन सबका स्वामी हूँ। मैं एक अनादि - अविनाशी आत्मा हूँ, शरीर तो एक विनाशी चीज़ है, यह तो हमे कर्मा करने और भोगने के लिए मिला है, परंतु इस द्वारा कर्म करने और भोगने वाला मैं आत्मा अजर और अमर हूँ।
आत्मा जब शरीर को छोड़ जाती है तोयह शरीर 'मुर्दा' कहलाता है। तब लोग उसे जलाने की सोचते है क्योंकि उसमें जो मूल्यवान वस्तु (आत्मा) थी वह निकल गयी तो फ़िर शरीर किस काम का ? तब लोग प्रायः यही कहते है कि- इसमे से ज्योति चली गयी है, (The light has gone), प्राण निकल गया है और खेल खत्म हो गया है।
आत्मा क्या वस्तु है ? मन, बुद्धि और संस्कार क्या है ?
आत्मा एक चेतन वस्तु है। आत्मा को 'चेतन' इसी कारण कहा जाता है कि वह सोच-विचार कर सकती है, दुख-सुख का तथा शांति और आनंद का अनुभव कर सकती है और अच्छा या बुरा बनने का पुरुषार्थ अथवा कर्म कर सकती है। अतः आत्मा मन, बुद्धि और संस्कारों से अलग नही है बल्कि 'मन' स्वयं आत्मा के ही संकल्प अथवा दुख-सुख के अनुभव का अथवा इच्छा या 'कामना' का नाम है। 'बुद्धि' स्वयं आत्मा ही के निर्णय, विचार, विवेक शक्ति या ज्ञान का नाम है और 'संस्कार' स्वयं आत्मा द्वारा किये गए अच्छे या बुरे कर्मो के आत्मा पर पड़े प्रभाव का नाम है। यों भी कह सकते है कि अच्छे या बुरे कर्म करने से आत्मा की जो वृत्ति बनती है या जो उसका दृष्टिकोण बनता है, उसका नाम संस्कार या स्वभाव (स्व+भाव) है।
अतः आत्मा को मन, बुद्धि और संस्कारों से अलग मानना तो गोया आत्मा चेतन न मानना अर्थात उसे जड़ मानना होगा। चेतन आत्मा में और जड़ प्रकृति में यही तो अंतर है कि प्रकृति में इच्छा, विचार, प्रयत्न और अनुभव आदि लक्षण नही है परन्तु आत्मा में ये सभी लक्षण है। जिस आत्मा में इच्छा, विचार, प्रयत्न और अनुभव शुद्ध अथवा सात्विक है वह 'महात्मा', 'पुण्य-आत्मा' व 'पवन-आत्मा' कहलाता है। और जिसमे यह अशुद्ध अथवा तामसिक है, वह 'पापात्मा', 'दुरात्मा' या 'पतित-आत्मा' कहलाता है। आत्मा ही के अच्छे या बुरे होने के कारण ही कहा जाता है कि- "आत्मा अपना शत्रु आप है और मित्र भीआप ही है।"
तो मालूम रहे कि आज लोग मन को स्वयं आत्मा से अलग मन पर जो इस प्रकार के दोष देते है ..." मन बड़ा चंचल है, यह काबू में नही आता, मन बड़ा नीच है, यह पापी है..." वह गोया अपने को निर्दोष मानते और दोष दुसरो के सिर पर मढ़ने के लिए ही मन को आत्मा से अलग है। यह उनकी भूल है । वास्तव में यह आत्मा ही पतित हो गयी है और इसे अब पावन बनाना है । अतः मनुष्य को यह नही सोचना चाहिए कि -"क्या करूँ, यह मन बड़ा धोखा देता है, यह इधर उधर भाग जाता है और मुझे भटकता है... यह बुराई की ओर ले जाता है-" आदि-आदि, बल्कि, अब यह सोचना चाहिए कि -"बुरा या भला सोचने तथा करने वाला मैं स्वयं (आत्मा) ही हूँ और अब से मैं ही यह निर्णय करता तथा प्राण करता हूँ कि अब मैं बुरा कर्म नही करूँगा। मेरे पूर्वाभ्यास के कारण यदि कभी मेरी वृत्ति बुरी भी होने लगेंगी या कभी अशुद्ध संकल्प उठेगा भी तो अब मैं ज्ञान बल स्वयम ही उसे रोकने का अभ्यास करके अपनी वृत्ति, दृष्टि और कृति को पवित्र बनाऊंगा। अब तक मैं मन, बुद्धि और संस्कारों को अपने से अलग मानकर उन्हें छूट देता रहा हूँ और परिणामस्वरूप दुखः तथा अशान्ति भोगता रहा हूँ। परंतु, अब से लेकर मैं समझ गया हूँ कि सोचने वाले मैं स्वयं ही हूँ, अतः अब मैं बुरा सोचूंगा भी नही और करूँगा भी नही ।"








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