मन-बुद्धि का मस्तिष्क से अंतर
मन-बुद्धि का मस्तिष्क से अंतर
कई लोग कहते है कि मस्तिष्क अथवा ब्रेन (Brain) हीं सोचता, इच्छा करता तथा शरीर द्वारा कर्म करता है। यह बात कहाँ तक ठीक है ?
ब्रेन (Brain) अथवा मस्तिष्क तो आत्मा Control room (कंट्रोल रूम व नियंत्रणालय) है। जैसे मोटर कार में एक स्थान पर बैठा ड्राइवर विभिन्न यंत्रों द्वारा कार को चलाता, रोकता, उसकी रफ्तार को देखता, उसे मोड़ता, पीछे या सामने से आने वाले लोगों या गाड़ियों को देखता है, वैसे ही आत्मा (Soul) भी मस्तिष्क द्वारा सारे शरीर पर नियंत्रण करता तथा शरीर के किसी भी भाग को कार्य में लगाता हैं । जैसे बोलने की लिए मुख (Mouth) ही यंत्र है, उसी प्रकार सोचने, याद करने, कर्मेन्द्रियों को निर्देशन देने या कर्मेन्द्रियों का संदेश प्राप्त करने के लिए मस्तिष्क ही आत्मा के पास एक यंत्र है । सारे शरीर के किसी भी भाग में हुए किसी भी संवेदन (sensation) को नियंत्रणालय (Control room) में पहुचाने वाले जो स्नायु (Nerves) हैं, वे सभी मस्तिष्क में ही आकर मिलते हैं । आत्मा वहाँ ब्रेन में उन Nerves द्वारा ही शरीर को काम मे लगाती है और शरीर के किसी भी संवेदन (Sensation) अथवा दुःख-सुख को अनुभव करती है । परंतु मस्तिष्क आत्मा से तो अलग चीज़ है, मस्तिष्क प्रकृतिकृत है, आत्मा चेतन है।
आत्मा शरीर मे कहाँ रहती है ? Where the soul lives in our body ?
आत्मा शरीर मे भृकुटि (Between eyebrows) में रहती है। इसलिए भृकुटि पर टिका लगाने की प्रथा है । वास्तव में तो हमे आत्मा के स्वरूप में टिकना चाहिए लेकिन भक्त लोग 'टिका' लगा देते है। माताओ में बिंदी लगाने की प्रथा भी वास्तव में इसी रहस्य का परिचय देती हैं कि बिंदु रूप आत्मा भृकुटि में रहती है ।
यह कहावत भी है कि -"भृकुटि के बीच में चमकता है एक अजब सितारा ।" जब मनुष्य कुछ विचार नही कर पाते और अपनी बुद्धि को टटोलते हैं तो भी वे यही हाथ रखते है। जब वे अपने भाग्य, प्रालब्ध अथवा नसीब को बुरा भला कहने लगते है तब भी वे यही हाथ रखते हैं क्योंकि कर्ता-भोक्ता आत्मा स्वयं यहां ही है ।
आत्मा का रूप क्या है? What is the shape of the soul
यह जो ज्योति स्वरूप आत्मा है, यह अत्यंत सूक्ष्म, एक ज्योति-कण (Point of Light) के समान है । जैसे आकाश में चमकता हुआ एक तारा पृथ्वी पर होने वाले हम लोगों को एक प्रकाशमान बिंदु- सा ही प्रतीत होता है, वैसे ही आत्मा एक ज्योति बिंदु अथवा चेतन ज्योति-कण ही है जो शरीर मे भृकुटि के बीच वास करती है । जब तक यह शरीर मे है और शरीर के मस्तिष्क आदि भाग कार्य करते है तब तक मनुष्य सजीव है। जब यह आत्मा इस शरीर रूपी रैन-बसेरे को छोड़ जाती है, यह सुना हो जाता है। यहाँ ही चहल-पहल, मस्तिष्क का कार्य और इन्द्रियों का व्यव्हार बिल्कुल ठप्प हो जाता है । मस्तिष्क ही मानो आत्मा की अभिव्यक्ति के लिए और कर्मेन्द्रियों रूपी नौकर-चकरो से काम लेने के लिए आत्मा का मुख्य साधन अथवा नियंत्रणालय (कंट्रोल रूम) है, ह्रदय ही शरीर में लाइफ लाइन अथवा सप्लाई सेण्टर (Supply Center ) अर्थात जीवन संचार अथवा रसद भेजने का मार्ग है। जब मस्तिष्क रूपी मंत्रणालय अथवा सूचनालय को, यह कर्म और भोग के साधन -संचय रूपी शरीर को कोई जीवन-हर चोट या असह्य हानि होती है, या यों कहे कि इस शरीर द्वारा कर्म भोग का जब लेखा जोखा समाप्त हो जाता है, तो आत्मा रूपी पक्षी इस अस्थि -चर्म के पिंजरे को छोड़कर उड़ जाता है और अपने संस्कारों तथा भाग्य एवं प्रालब्ध के वश हुआ दूसरे एक हड्डी-मास के पिंजरे में बसता है।
आत्मा इस संसार रूपी मुसाफिर खाने में आई कहाँ से
अब प्रश्न उठता है कि - जो आत्मा रूपी अविनाशी चेतन सत्ता है, यह संसार रूपी मुसाफिर खाने में आया कहा से है और आख़िर इसे जाना कहाँ है ? यह सृष्टि रूपी कर्म क्षेत्र में अथवा कर्मेन्द्रियों कस संग्रह रूप देह में उतरा कहाँ से है ? और अंत में खेल ख़तम होने पर यह लौटेगा कहाँ ? इसका वास्तविक ठिकाना अथवा बसेरा कौन-सा है जिसे अब यह भूल चूका है ?
प्रकृति से भिन्न यह पुरुष तो किसी और ही लोक से इस संसार में क्रीड़ा करने अथवा यहाँ के दृश्य देखने आया होगा।
तीनो लोको का रहस्य
आत्मा के धाम को जानने के लिए तीनो लोको का ज्ञान ज़रूरी है। परमात्मा को 'त्रिलोकीनाथ' भी कहते है न ? तो क्या आप जानते है कि वह तीन लोक कौन -कौन से हैं और उनमे से किस लोक से आत्मा इस सृष्टि मंच पर आयी हैं ?
यहां तीन लोक का चित्र देखिये। परमपिता परमात्मा ने हमें दिव्य दृष्टि का वरदान देकर इसका साक्षात्कार कराया है। उसके आधार पर हमने यह चित्र बनवाया है। इस चित्र में सबसे नीचे उल्टे वृक्ष के रूप में जो मनुष्य सृष्टि दिखाई गयी है , यह मनुष्य सृष्टि आकाश तत्व के अंश मात्र में हैं। इस लोक को मनुष्य लोक भी कहा जाता है। इसे ही साकार लोक , 'स्थूल-सृष्टि', कर्म क्षेत्र या 'विराट नाटक-शाला भी कहा गया है क्योंकि इस लोक में आकर आत्मा स्थूल अर्थात हड्डी मास का शरीर धारण करती है और कर्म करती अथवा सुख-दुःख का खेल खेलती खेलती है। वह जैसा कर्म करती है, वैसा फल भोगती है। इस लोक में जनम - मरण, सुख-दुःख, कर्म-विकर्म, संकल्प, वचन आदि सभी हैं। इस लोक में सदा यह विराट मनुष्य सृष्टि-नाटक (Movie -Talkie ; world -Drama ) चलता ही रहता है। अर्थात देवताओ का सूक्ष्म लोक कहा है ?
इस मनुष्य सृष्टि के सूर्य और तारागण के पार, आकाश तत्व के भी पार, एक और लोक है जहाँ ब्रह्मा, विष्णु, और शंकर अपनी-अपनी सूक्ष्म पुरियों में वास् करतें हैं। इस लोक को 'सूक्ष्म लोक' अथवा आकारी देवताओं की दुनिया भी कहते हैं।क्योंकि जो देवता वास करते हैं उनके हमारी तरह कोई स्थूल अर्थात हड्ड़ी -मांसादि के शरीर नहीं हैं बल्कि उनकी सूक्ष्म , प्रकाशमय काया है जोकि इन स्थूलनेत्रों से नहीं देखी जा सकती हैं | उस लोक को दिव्यचक्षु द्वारा ही देखा जा सकता है | उस लोक में मनुष्य -लोक की तरह जन्म -मरण या दुःख नहीं होता ,न ही वहाँ वचन या ध्वनि होती है | वहाँ बोलते तो हैं परन्तु आवाज़ नहीं होती | अतः वहाँ केवल गति है अर्थात केवल मूवी वर्ल्ड़ [movie world ] हैं ,वहाँ आवाज़ [talkie ] नहीं हैं परमधाम , ब्रह्मलोक , परलोक या निर्वाणधाम कहाँ है ? सूक्ष्म देवलोक के पर भी एक अन्य लोक है | उस लोक को परमधाम ,ब्रह्मलोक अथवा परलोक भी कहा जाता है | यहाँ न स्थूल शरीर होता है ,न सूक्ष्म ,न संकल्प होता है ,न वचन न कर्म | इसलिए ,वहाँ न सुख होता है न दुःख ,न जन्म और न मरण | बल्कि वहाँ शान्ति ही शान्ति है | इसलिए शान्तिधाम ,मुक्तिधाम या निर्वाणधाम भी कहा गया है | यहाँ पर एक ज्योति तत्व व्यापक है ,जिसे 'ब्रह्म' कहते हैं | यह ब्रह्म तत्व चेतन नहीं है बल्कि प्रकिति का छठा तत्व है जो सत ,रज और तम से न्यारा है | आवागमन के चक्कर को जानने वाले ,अजन्मा एवं त्रिकालदर्शी परमपिता परमात्मा शिव ने अब हमें यह अति गुहा रहस्य समझाया है कि वास्तव में सूर्य और तारागण के भी पार ,इस अखंड ज्योति ब्रह्म तत्व में ही आत्माएं अशरीरी अर्थात देह रहित अवस्था में ,संकल्प -विकल्प रहित ,दुःख -सुख तथा जन्म -मरण से न्यारी अवस्था जिसे 'मुक्ति कि अवस्था 'कहा जाता हैं | में रहती हैं | वहाँ से ही आत्मा इस रूपी रंगशाला [theater ] में ,अपना -अपना पार्ट बजाने आती हैं और पार्ट के अनुसार देह रूपी वेश -भूषा धारण करती हैं | जैसे आकाश से कोई तारा टूटकर पृथ्वी पर आ गिरता हैं वैसे ही आत्मा को जब इस सृष्टि के सुख -भोग के लिए आना होता है तो वह मुक्तिधाम को छोड़कर इस लोक में प्रवेश करती है और माता के गर्भ में स्थूल देह को अपना बसेरा बनाती है | फिर वह जैसे कर्म करती है तदानुसार ही उसका फल भोगती है | इस रहस्य को जानकर अब आप अपने वास्तविक स्वरूप और धाम को पहचानो | इस प्रसंग में हमें एक उदाहरण याद आता है मनुष्ययात्मा स्वयं को भूली कैसे ? कहते हैं कि -एक राजा का महल जंगल के निकट था | एक दिन राजकुमार खेल रहा था कि उसे भेड़िये उठा ले गए | वह राजकुमार भेड़ियों के झुंड में फँसकर ,उनके पास ही पलने और बढ़ने लगा | बहुत काल के बाद ,एक दिन राजा जंगल में शिकार करने गया तो उसने देखा कि एक मानव -शिशु भी भेड़ियों के झुंड में है | उसने सोचा कि भेड़िये शायद उसे नगर से कभी उठा लाये होंगे | घोड़े पर सवार राजा ने भेड़िये का पीछा करके राजकुमार को उनके पँजे से छुड़ाया और उसे अपने घोड़े पर बिठाकर नगर की ओर लौटा | राजकुमार बड़ा हो गया था और जंगल में उसकी आकृति -प्रकृति बदल गई थी | उसके नाखून बहुत बड़े हो गए थे ,बाल लम्बे , मैले और चेहर मिट्टी से भरा था | वह भेड़ियो की तरह शब्द करता था ,मानो कि भेड़ियों के संग में भी भेड़िये -जैसा ही हो गया था | देखते -देखते , राजा के मन में आया कि यह तो वही राजकुमार है जो गुम हो गया था | वह महल में पहुँचा तो दूसरों ने जब उसे देखा , तब वे भी राजा से सहमत हुए और कहने लगे कि यह वही राजकुमार है | तब उसे नहलाया -धुलाया गया | राजकुमारों की तरह उसे साफ़ और सुन्दर वस्त्र पहनाए गए और उसके लिए एक शिक्षक नियुक्त किया गया जो उसको बोलना , चलना तथा व्यवहारिक शिक्षा देने लगा | शिक्षक उसमें यह भाव करने की चेष्टा करता रहा कि - " तुम भेड़िये नहीं हो , जंगल के निवासी नहीं हो : इस जंगल और नगर पर तुम्हारे पिता का ही राज्य है | " इसी प्रकार की शिक्षा से कुछ समय के पश्चात् उस राजकुमार के रहन -सहन , खान -पान ,बात -चीत आदि में बहुत परिवर्तन आ गया | अब वह इस नशे में रहता था कि - "मैं तो राजकुमार हूँ | " अब वह उसके ठाठ ही बदल गये थे | इस प्रकार यह मनुष्यात्मा भी , है तो त्रिलोकीनाथ , देवों के भी देव , परमपिता परमात्मा की सन्तान | परन्तु शरीर तथा के संबंध में आते -आते यह स्वयं को भी शरीर मानने लगी और उनके विषयों के वशीभूत होकर विकरों में बरतने लगी | इस प्रकार ,उनका आहार -व्यवहार , खान -पान , रहन - सहन सब बदल गया | परन्तु अब परमपिता परमात्मा यह चेतना देते हैं कि - 'हे आत्मा ! तुम तो वास्तव में मुझे त्रिलोकीनाथ परमात्मा ही की सन्तान हो | वास्तव में तो तुम स्वर्ग के दिव्य सुख और सोने के महलों में संपूर्ण पवित्रता -सुख -शांति संपन्न राज्य भोगती थीं परन्तु जन्म -जन्मान्तर देह के संबंध में आते -आते देह में ही आसक्त [Attached ] हो गई और अपने को भूल कर देह मानने लगीं | '






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